दुनिया भर में क्यों कम पड़ रहे इंसुलिन, क्या करेंगे डायबिटीज़ पीड़ित

  • सौतिक बिस्वास
  • बीबीसी संवाददाता
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डायबिटीज़ को शहरों की ख़राब जीवनशैली की उपज माना जाता है.

टाइप-2 डायबिटीज़ के मामले में पीड़ित के ख़ून में मौजूद सुगर की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन पैदा नहीं हो पाता है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि टाइप-2 डायबिटीज़ के शिकार लाखों लोगों के लिए अगले एक दशक या उससे भी ज़्यादा समय के लिए इंसुलिन हासिल करना मुश्किल हो सकता है.

दुनिया भर में इस समय 20 साल से 79 साल की उम्र वाले लगभग 40 करोड़ लोग टाइप-2 डायबिटीज़ से पीड़ित हैं.

इनमें से आधे से ज़्यादा लोग चीन, भारत और अमरीका में रहते हैं.

साल 2030 तक टाइप-2 डायबिटीज़ से पीड़ित लोगों का आंकड़ा 50 करोड़ तक पहुंचने की आशंका है.

इसके अलावा टाइप-1 डायबिटीज़ भी होता है.

इसमें पीड़ित का शरीर इंसुलिन पैदा करने वाली पेनक्रेटिक सेल को नुक़सान पहुंचाना शुरू कर देता है.

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दुनिया में इंसुलिन का अभाव

लांसेट डायबिटीज़ एंड एंडोक्रिनोलोजी जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़, साल 2030 तक टाइप-2 डायबिटीज़ से पीड़ित लगभग 8 करोड़ लोगों को इंसुलिन की ज़रूरत होगी.

2030 तक इस दवा की मांग में 20 फ़ीसद की बढ़ने की संभावना है.

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लेकिन इनमें से लगभग आधे से ज़्यादा लोग (संभवत: एशिया और अफ़्रीका में) इस दवा को हासिल नहीं कर पाएंगे.

इस समय लगभग 3.3 करोड़ लोगों को इंसुलिन की दरकार है और वे इस दवा को हासिल नहीं कर पा रहे हैं.

इंसुलिन के अभाव का मतलब

इंसुलिन की उपलब्धता पर अध्ययन करने वाली टीम के प्रमुख डॉ. संजय बासु इस दवा की उपलब्धता, मांग और पूर्ति के समीकरण को समझाते हुए कहते हैं, "मधुमेह पीड़ितों की इस दवा तक पहुंच का मतलब ये है कि इंसुलिन लोगों के लिए उपलब्ध हो और लोग इसे ख़रीदने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम भी हों."

"क़ीमत के साथ-साथ एक सप्लाई चेन भी होनी चाहिए ताकि फ्रिज़ में रखी जाने वाली इस दवा और इसके साथ दी जाने वाली सुइयों को सुरक्षित ढंग से वितरित किया जा सके."

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इंसुलिन इतनी महंगी क्यों?

इंसुलिन 97 साल पुरानी दवा है, जिसे 20वीं सदी में 'चमत्कारी दवा' कहा गया था.

ऐसे में इतने सालों बाद भी ये दवा इतनी महंगी क्यों है? ये एक बड़ा सवाल है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक़, 1554 अरब रुपए के वैश्विक इंसुलिन बाज़ार का 99 फ़ीसद हिस्सा तीन मल्टीनेशनल कंपनियों- नोवो नोरडिस्क, इलि लिली एंड कंपनी और सनोफी के पास है.

इसके साथ ही बाज़ार के आकार के लिहाज़ से इन कंपनियों के पास 96 फ़ीसदी हिस्सेदारी है.

यही तीन कंपनियां पूरे अमरीका को इंसुलिन की आपूर्ति करवाती हैं.

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वैश्विक नियंत्रण

दुनिया भर के 132 देशों में से 91 से ज़्यादा देश इंसुलिन पर किसी तरह का शुल्क नहीं लगाते हैं.

लेकिन इसके बावजूद ये दवा लोगों के लिए काफ़ी महंगी है क्योंकि करों के साथ-साथ सप्लाई चेन पर होने वाले खर्च की वजह से ये दवा लोगों की पहुंच से बाहर हो जाती है.

अमरीका में लगभग दो करोड़ लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं.

साल 2000 से 2010 के बीच डायबिटीज़ पीड़ितों का इंसुलिन पर होने वाला खर्च 89 फ़ीसद तक बढ़ गया.

इंश्योरेंस की परिधि में रहने वाले वयस्क लोगों पर भी ये बात लागू होती है.

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प्रति शीशी इंसुलिन की क़ीमत लगभग 2960 रुपए से बढ़कर लगभग 9620 रुपए हो चुकी है. एक शीशी बस कुछ दिनों तक ही चलती है.

इस दवा की उपलब्धता को लेकर भी कई सवाल उठते हैं.

जेनेवा यूनिवर्सिटी अस्पताल और जेनेवा यूनिवर्सिटी से जुड़े डॉ. डेविड हेनरी बेरन के मुताबिक़, "देशों के पास आपूर्तिकर्ताओं के रूप में काफ़ी कम विकल्प हैं. ऐसे में लोगों को इंसुलिन का टाइप बदलने पर विवश होना पड़ता है क्योंकि कंपनियों ने कुछ फॉर्म्युलेशंस को उपलब्ध कराना बंद कर दिया है."

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इस समय दुनिया में पांच तरह की इंसुलिन वाली दवाएं मौजूद है.

ऐसे में डॉक्टर मरीज़ों को वह दवा लिखते हैं जो कि उनकी जीवनशैली, उम्र, ब्लड सुगर गोल और रोज लेने वाले इंजेक्शंस की संख्या के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाए.

लेकिन अगर दवा की उपलब्धता की बात करें तो इंसुलिन की आपूर्ति उन देशों के लिए एक समस्या हैं, जहां औसत आय कम या मध्यम स्तर की है.

इंसुलिन की उपलब्धता पर हुए अध्ययन में सामने आया है कि बांग्लादेश, ब्राज़ील, मालावी, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में इंसुलिन की उपलब्धता कम पाई गई.

इसके साथ ही ख़राब प्रबंधन और अप्रभावी वितरण की वजह से आपूर्ति में समस्या पैदा हो सकती है.

उदाहरण के लिए मोज़ाम्बिक में इंसुलिन की 77 फ़ीसद आपूर्ति यहां की राजधानी में ही संभव है.

इसकी वजह से पूरे देश में इंसुलिन की कमी देखी जाती है.

डॉ. बेरन कहते हैं, "दुनिया भर में इंसुलिन की उपलब्धता न होना और ख़रीदने की क्षमता से बाहर होना ज़िंदगी के लिए ख़तरा है और ये स्वास्थ्य के अधिकार को चुनौती देता है."

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इंसुलिन की जेनरिक दवा

ऐसे में सवाल ये है कि लगभग सौ साल पहले खोज की गई दवा अभी भी लोगों के लिए जेनरिक दवा के रूप में उपलब्ध क्यों नहीं है.

इंसुलिन का अविष्कार करने वाले वैज्ञानिकों ने अपनी दवा का पेटेंट टोरंटो यूनिवर्सिटी को एक डॉलर में बेच दिया था.

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किसी भी दवा के पेटेंट की अवधि ख़त्म होने के बाद वह आम तौर पर काफ़ी सस्ती हो जाती है.

इसके लिए जेनरिक दवाएं बनाने वाली कंपनियों को शुक्रिया कहा जाना चाहिए. लेकिन इस दवा के मामले में ऐसा नहीं हुआ.

वैज्ञानिक जेरेमी ए ग्रीन और केविन रिग्स कहते हैं कि इसकी एक वजह ये हो सकती है कि इंसुलिन लिविंग सेल्स से बनती है और इसका फॉर्म्युला कॉपी करने के लिहाज़ से ज़्यादा जटिल है.

इसके साथ ही जेनरिक दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने अब तक इस दवा को इस लायक नहीं समझा है कि इसकी जेनरिक दवा बनाने की कोशिश की जाए.

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जैविक स्तर पर मिलती जुलती इंसुलिन भी बाज़ार में उपलब्ध हैं और अपेक्षाकृत सस्ते दामों में उपलब्ध हैं. लेकिन वे जेनरिक दवाओं जितनी सस्ती नहीं हैं.

वैज्ञानिक कहते हैं कि इंसुलिन यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज़ पैकेज़ में शामिल की जानी चाहिए. इसके साथ ही डायबिटीज़ के वितरण और रखरखाव में अन्वेषण के लिए धन खर्च किए जाने की ज़रूरत है.

इससे साफ़ पता चलता है कि कमजोर मेडिकल सिस्टम, इंसुलिन की खर्चीली वितरण प्रणाली और कीमत जैसे कारक मिलकर इंसुलिन की लोगों तक पहुंच पर प्रभाव डालते हैं.

डॉ. बासु कहते हैं, "क़ीमत और वितरण प्रक्रिया को लेकर काम की ज़रूरत है. जब तक इन मुद्दों पर काम नहीं होता तब तक इंसुलिन की कमी से लोग उबरने वाले नहीं हैं."

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